Saturday, September 27, 2008


।। श्री ।।

( वृक्ष क्यों हमारे मित्र नहंी , आगे का सार)

जो बोले, वो ही साँकल खोले ...... दरवाजे पर सांकल बजने की आवाज, जो भी घर का सदस्य सुनता है, वही प्रत्युत्तर में जवाब देता है एवं वही, स्वयं निश्चित /संतुष्ट होने पर ही सांकल खोलता है । दूसरे शब्दों में अपने आपको सबके सामने रखने वाला ही बोलेगा एवं स्वयं निश्चित/ संतुष्ट होनेपर ही उस विषय की सांकल खोलने का प्रयास करेगा । यह लेख मैं अपने ९ - १० वर्षोंा के स्वास्थ्य विषय पर के अनुभव के आधार पर लिख रहा हूँ एवं आप इसे मेरे पूर्व में लिखे वृक्ष क्यों हमारे मित्र नहंी का विस्तार समझ सकते हैं । वर्तमान समय में १४० से अधिक प्रकार की चिकित्सा पद्धतयां है जो कि स्वास्थ्य विषय पर कार्यरत है । सबका एक ही लक्ष्य है - मानव सेवा । आयुर्वेद का प्रायोजन /उद्देश्य है :- स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणआतुरस्य विकार प्रशमनंच प्रशनमनंच स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का रक्षण एवं रूग्ण व्यक्ति के रोग का निवारण करना । किसी भी रोग को शरीर अलग करने के दो तरीके होते हैं , पहला है शोधन एवं दूसरा है शमन। शोधन का सीधा सा मतलब है देह को / शरीर को शुद्घ करके रोग भगाया जावे । शमन का सीधा सा मतलब है रोग को वहीं का वहीं शमन कर देना /दबा देना, ताकि उसके लक्षण ही न उभरे । उदाहरण के लिए यदि किसी को सर्दी हो गयी है ,वह अदरक /अलींर्ळींश ५०० (सर्दी की एलौपेथिक गोली या कोई अन्य औषधि का प्रयोग कर अपने आपको स्वस्थ महसूस करता है । यह शमन चिकित्सा है । शमन चिकित्सा तुरंत राहत पहुंचाती है । इस तरह यहंा सर्दी से तो राहत मिलती है लेकिन सर्दी क्यों हुई उसके होने के कारण क्या है? उसका इलाज नहीं किया जाता । उस पर विचार ही नहीं किया जाता। पुन: यह जो सर्दी है ,यह अदरक / अलींर्ळींश ५०० (सर्दी की एलौपेथिक गोली से एक बार /५० बार /........... ठीक हो सकती है , लेकिन एक समय आ सकता है / आ जावेगा, जब अदरक /अलींर्ळींश ५०० (सर्दी की एलौपेथिक गोली) से सर्दी पर कोई फर्क नपड़ेगा । इस समय, इस सर्दी के लिए दौड़ शुरू होगी, उच्च् श्रेणी के रसायन /हाई पॉवर कळसह झुशिी आिळींलळिळींली एंटीबायोटिक्स की ओर एवं इसका अंत यह होगा कि आपको एलर्जी घोषित कर दी जावेगी । यह शमन चिकित्सा है , इसमें सर्दी होती रहती है / ठीक भी होती रहती है / जब तक ईश्वर अच्छा हो । इसकी तुलना बैंक के रेकरिंग खाते से की जा सकती है । आप धन लगाते रहे / काम चलता रहेगा ...... जब तक ईश्वर इच्छा हो । आईये, अब शोधन चिकित्सा को समझते हैं । शोधन चिकित्सा यह मानकर की जाती है कि आपका पेट ठीक नहीं है एवं आपके भोजन की पाचन व्यवस्था सुधारी जाती है । इस चिकित्सा में सर्दी का इलाज नहीं किया जाता है, सर्दी तो अपने आप चली जाती है । शोधन चिकित्सा सारे ज्ञात/अज्ञात रोगों को चुनौती देती है । इस चिकित्सा में ठंडा या गर्म प्रभाव छोड़ने वाली चिकित्सा नहंी की जाती, देह को शुद्ध किया जाता है । देह के शुद्ध होने से शरीर के सारे रोगों का नाश होकर उसकी प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ जाती है । इससे पूरे शरीर को नवयौवन प्राप्त् होता है । यही कारण है कि इसे कायाकल्प चिकित्सा भी कहते हैं । शरीर का कायाकल्प करने के लिए ऋषि मुनियों ने पाँच कार्य बतलाए हैं, यही कारण है कि इसे पंचकर्म चिकित्सा भी कहते हैं। शरीर का शोधन हो सके इसके लिए पहले मैंशरीर की तुलना आटोमोबाइल इंजीनियरिंग के किसी भी डीजल/पेट्रोल इंजन से इसकी तुलना करता हूँ । कोई भी इंजन भली भांति काम करे इसके लिए इसका मेंटेनेंस (अनुरक्षण/रखरखाव) समय -समय पर किया जाता है । यहाँ गाड़ी खड़ी कर दी जाती है / रोक दी जाती है । शुद्ध गैसोलीन (पेट्रोल एवं हवा/डीजल एवं हवा का मिश्रण) इंर्जन के पेट में पहुँचाया जाता है । इंर्जन में भरा तेल अपशिष्ट रूप में होने पर/मल रूप में होने पर/ निकाल कर बदला जाता है, नया डाला जाता है, कुल मिलाकर यहीं मेन्टेनेन्स है एवं इंर्जन चलता ही जाता है । हम इस मेन्टेनेन्स पर काफी भरोसा करते है । हमारे डीजल/पेट्रोल इंर्जनों का मुख्य आधार ही यह अनुरक्षण है । पुन: शरीर की ओर ध्यान देते हैं । इंर्जन के मेन्टेनेन्स में गाड़ी/इंर्जन बंद करने के बाद/रोकने के बाद मेन्टेनेन्स हुआ था, शरीर का क्या करें । इसे कुछ देर के लिए बंद कैसे करें । वर्तमान आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की ऐनेस्थेशिया/बेहोश करने वाली चिकित्सा, शल्य चिकित्सा में नि:संदेह मील का पत्थर साबित हुई है । २६०० वर्ष पूर्व शल्य चिकित्सा के पितामाह आचार्य सुश्रुत ने धरती पर पहली बार मानव शरीर के सम्पूर्ण अंगों में शल्य स्थानों/शल्य उपकरणों एवं सम्पूर्ण शल्य क्रिया का विधिवत् उपयोग लोक कल्याण हेतु किया था । उस समय एनेस्थेशिया/आधुनिक चिकित्सा उपकरण नहीं थे । सुश्रुत ने कहा है - निष्णात से निष्णात वैद्य की सफलता भी, गंभीर शल्य चिकित्सा में संदिग्ध रहती है । अत: आवश्यक होने पर ही शल्य क्रिया की जावे । यही कारण है कि आज भी शल्य चिकित्सा के पूर्व, चिकित्सक रोगी के परिजनोंे से हस्ताक्षर करवाते हैं । एक महत्वपूर्ण बात शल्य चिकित्सा कक्ष (जशिीरींळिि ढहशरींिी) के सामने लिखि होती है - कोई भी ऑपरेशन छोटा या बड़ा हो सकता है लेकिन एनेस्थेशिया हमेशा बड़ा होता है । इस चिकित्सा के द्वारा शरीर की बड़ी आयु/अच्छा स्वास्थ्य का सपना पूरा होता है । लेकिन खतरा भी है और बाद के साइड इफेक्ट भी तकलीफ देते है । एनेस्थेशिया का लाभ उठाकर रोगी व्यक्ति की देह का/शरीर का दु:ख तो कम किया जा सकता है, लेकिन यह भी शमन चिकित्सा है । रोगी व्यक्ति/स्वस्थ व्यक्ति का शोधन किया जा सके/गाड़ी का चरळिशींरिलिश हो सके, यह संभव नहीं हैं । शोधन की परिभाषा के अनुसार इसमें पेट ठीक किया जाता है । पेट ठीक करने से क्या मतलब है । इसमें गाड़ी हो तो गैसोलीन अथवा शरीर हो तो भोजन-पानी दिया जाता है । यह पेट आसानी से खराब होने वाली चीज नहीं है । अब शरीर में आगे गलती कहाँ होती है, इसके आगे तो छोटे आँत, क्षुद्रांत, फिर बड़ी आँत एवं मल द्वार होता है । भोजन की मुख्य रूप से अग्नि में पककर, रस से रक्त बनने की एवं और आगे की धातुआें में बदलने की क्रिया इन छोटी आँतो में ही प्रारंभ होती है । अत: जो चिकित्सा इस छोटी आँत को स्वस्थ बना सके, मेरी समझ में वही शोधन की परिभाषा को पूर्ण कर सकती है । इसके लिए शरीर में दिये जाने वाले भोजन-पानी, जो कि सही होना ही चाहिए और कैसा होना चाहिए इसके संबंध में आचार्य चरक का स्पष्ट कथन कुल दो शब्दों मे है उष्णं स्निग्धं । भोजन गर्म, स्निग्ध (घी/तेल/वसा) की चिकनाई से युक्त होना चाहिए । इन दो गणों से युक्त भोजन का नित्य प्रति सेवन किया जावे तो शोधन स्वत: प्रक्रिया चलती है एवं पेट कभी खराब नहीं होता । शोधन कर सकने में समर्थ पंचकर्म के बारे मंे मोटी-मोटी बातें जो मुझे समझ में ंआयी वो निम्नानुसार हैं :- इसमें पाँच कर्म करने होते है :-१. बस्ति२. स्नेहन३. विरेचन४. वमन५. रक्त मोक्षण वमन एवं रक्त मोक्षण इन दो का मुझे अनुभव नहीं है । इनका सामान्य अर्थ है - उल्टी करवाना-वमन चिकित्सा । शरीर पर विशिष्ट स्थानों पर अविषाक्त जोंक चिपकवाना ताकि वह रक्त पी सके एवं देह में नया रक्त बने । इसमें देह का अशुद्ध रक्त क्रमश: देह से बाहर होता जाता है । यह रक्त मोक्षण चिकित्सा है । बस्ति चिकित्सा का मतलब है गुदा द्वार द्वारा अलग-अलग प्रकार के सिद्ध तेलों एवं क्वाथों को देह के भीतर पहॅुंचाना । आचार्यगण इसे अर्द्ध पंचकर्म चिकित्सा भी कहते है । पंचकर्म चिकित्सा में सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सा यही कही जाती है । मेरे अनुभव से भी यही सही है । शोधन चिकित्सा अपनी पूर्णता को इसके बिना कभी प्राप्त् नहीं हो सकती है । नान्यौषधिम् जगत् किंचित बस्ति एवं चिकित्सकम औषधि जगत की सारी औषधियों से जिस रोगी को लाभ न हो पा रहा है, वहाँ चिकित्सक को निर्देश है कि उसकी बस्ति के द्वार चिकित्सा की जावे । आचार्यगणों द्वारा बस्ति को अन्य स्नेहनादिकर्मोंा में श्रेष्ठ मानने का कारण है, क्योंकि बस्ति अनेक कार्योंा को सिद्ध करती है, नाना प्रकार के द्रव्यों के संयोग से बनी बस्ति शरीर के दोषों का संशोधन, संशमन एवं संग्रहण करती है । क्षीण/कमजोर शुक्र वाले पुरूष को शुक्रवान बनाती है, कृश को पुष्ट करती है, स्थूल को कृश बनाती है, नेत्रों को शांति देती है, मानसिक रोगों का नाश करती है और आयु बढ़ाती है । जिन लोगों के पास बस्ति का अनुभव नहीं है, उन्हें यह सब अविश्वसनीय महसूस हो सकता है, लेकिन आचार्य चरक का कथन है कि :- बस्ति: वय: स्थापयिता सुखायुर्बलाग्निमेधास्वर वर्ण कृच्च् बस्ति से मनुष्य की उम्र स्थापित हो, सुखपूर्वक आयु, बल, अग्नि, मेधा (बुद्धि), स्वर (आवाज) एवं रंग में सुधार होता है । यह चिकित्सा सभी उम्र में, १ दिन का बालक हो अथवा १००० वर्ष का वृद्ध सभी लोगों के लिए है/ मानव मात्र के लिए यह विशेष रूप से है । यह चिकित्सा यदि गलत हो जावे तो क्या होगा? मेरा विवेक/मेरा विश्वास कहता है कि ऐसे व्यक्ति को वर्तमान समय की आधुनिक से आधुनिक चिकित्सा पद्धति भी नहीं बचा सकती । ऐसे समय में शोधन चिकित्सा की जानकारी रखने वाला, पंचकर्म को समझने वाले, बस्ति दोषों को समझने वाला कुशल वैद्य ही आपको इस विपरीत स्थिति से निकाल सकता है । इस छोटे से जीवन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों की प्रािप्त् शरीर से रोग के निकलने पर ही होती है/हो सकती है । रोग के निकलने के लिए फिर चार बातोंका योग बने तभी रोग निकलता है, यह आयुर्वेद का मत है । आईये और आयुर्वेदानुसार देखिए कब योेग बनेगा / कैसे योग बनेगा ? रोगी के ठीक होने की भावना, कुशल वैद्य, (सतर्क, सहज,सरल) सहायक और उत्तम औषधि इन चारों का योग ही रोगी को रोग से मुक्ति एवं जीवन में प्रकाश महसूस कराता है । पुन: बस्ति विषय पर लौटते हैं । यह ध्यान में रखते हुए कि आंतो की कुल लम्बाई (छोटी व बड़ी आंत की मिलाकर) ३० फीट लगभग (९.१४ मी.) होती है । मुख से ली गई किसी भी औषधि का प्रभाव (सीधे रक्त में प्रवेश करने वाली औषिधियों को छोड़कर) सबसे पहले अपने गुणधर्मो को आपके आमाशय में छोड़ता है । यहाँ मौजूद अम्ल् रसों के द्वारा औषधि परिवर्तित/पाचित हो सकने योग्य होने पर आगे छोटी आंतो में, औषधि, धीमे-धीमे आगे बढ़ती है । आंतों के आखरी हिस्सों तक पहुँचते-पहुँचते इन औषधियों का प्रभाव मन्द हो जाता है । वहीं दूसरी ओर बस्ति के द्वारा दी गई औषधि की पहँुच, विपरीत दिशा में होने से इसकी पहुँच आंतों के अंतिम हिस्से में तुरंत होती है। इससे शोधन की गति में तीव्रता होती है । जिस प्रकार सूखते हुए वृक्ष की जड़ों में यदि सीधे पानी पहुँचाया जावे तो उसमें तुरंत चेतना प्रसार हो, उसे नवजीवन मिलता है । इसी प्रकार औषधियों की सीधे पहॅुंच होने से बस्ति कर्म, शोधन के समस्त स्नेहनादि अन्य कर्मों में सर्वश्रेष्ठ है । एक और मुख्य कारण बस्ति को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिलाना है, वह यह कि आंतों में कृमि (कीड़े) पलते बढ़ते है । कृमि के निकालने के लिए मुख से आप कोई भी दवा खा लें आंतों के आखरी हिस्से तक पहॅुंचते-पहॅुंचते वह निष्प्रभावी हो जाती है एवं उस समय यह कृमिअपनी आंतो के आखरी हिस्सोंमें आकर बैठ जाते हैं । मुख से ली गई औषधि के प्रभाव से यह जरूर होता है कि कुछ समय के लिए वे िषिक्रनय हो जाते है एवं रोगी को राहत महसूस होती है, लेकिन इनका अधिक प्रयोग आंतोंपर एक किस्म के एनेस्थेशिया सा प्रभाव छोड़ते है एवं आंतों की शक्ति कम होती चली जाती है । बस्ति चिकित्सा जो कृमि को लेकर है, वह इस विचारधारा के साथ है कि इन कृमियों को मारने का प्रयास न करें, अपितु आंतों में ऐसा वातावरण बना दें जिसे कृमि पसंद न करते हो एवं बाहर निकालने पर मजबूर हो जावें । बस्ति चिकित्सा द्वारा दिये गये सिद्ध तेलों/क्वाथों की पहॅुंच शरीर के भीतर ४-५ फीट होती है, जबकि आंतों की कुल लम्बाई ३० फीट है । मैंनें शुरू में ही उल्लेख किया है कि जो चिकित्सा छोटी अंात को बल दे सके, स्वस्थ बना सके, वही चिकित्सा सम्पूर्ण होती है ।कर चुके भोजन की, रस से रक्त में बनने की क्रिया यहीं छोटी आंतों में सम्पन्न होती है । यहां बस्ति चिकित्सा द्वारा दिया गया तेल भी केवल उस बिन्दु तक ही जाता है जिसे क्षुद्रांत्र (आिशिविळु) कहते हैं । यह क्षुद्रांत्र, बड़ी आंत व छोटी आंत का मिलन बिन्दु होता है । क्षुद्रांत्र, शरीर का एक अत्यंत महत्वपूर्ण बिन्दु है । छोटी आंत में भोजन का पूरा पाचन होने के बाद वह इसे बड़ी आंत को भेज देती है । इस समय भी शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्व, यदि मल में शेष रह गये हों, इस क्षुद्रांत्र ग्रंथि के द्वारा मल में से खींच लिए जाते हैं । हम कह सकते हैं कि पाचन व्यवस्था की रखवाली के लिए यह क्षुद्रांत्र ग्रंथि (आिशिविळु), अंतिम पहरेदार है । इसके बाद तो केवल बड़ी आंत एवं मलद्वार होता है । इस अंग में क्षुद्रांत्र खराबी आ जाने पर इसमें सूजन एवं दर्द होता है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इस ग्रंथि को काटकर निकाल देना ही इसका एकमात्र रास्ता समझता है। बस्ति चिकित्सा की पहुँच इस बिन्दु तक /क्षुद्रांत्र तक होने से इसमें शल्य चिकित्सा की आवश्यकता नहीं होती । बस्ति चिकित्सा में प्रयुक्त वृहत् सेंधवादि तेल अथवा महानारायण तेल इस स्थान की सूजन को उतारने में सक्षम है, वही सुरसादीगण क्वाथ की गौमूत्र के साथ तैयार बस्ति, उस स्थान पर चिपके हुए मल को बलात् (जबरजस्ती से) उखाड़ने में सक्षम होती है । गौमूत्र बस्ति बिना निर्देशन के न लेवें । पानी में अजवाय उबालकर , निकलने वाली भाप को गीले कपड़ें में सम्हालकर , रोगी के पेट पर रखने से ,उसे दर्द में तुरन्त आराम हो जाता है । इससमय रोगी को भोजन में तरल पदार्थ ही दिये जाते हैं । (कम से कम १० दिन तक) वह भी सुखोष्ण/थोड़ा गर्म कर । धैर्य रखकर यदि शोधन शुरू कर दिया जावे तो पौरूष ग्रंथि (पुरूषों में) एवं गर्भाशय (स्त्रियों में) , कभी निकालने ही न पड़ें। बस्ति चिकित्सा की पहुँच तो केवल बड़ी आंत या अधिक से अधिक क्षुद्रांत्र तक ही होती है । इतना स्पष्ट है , लेकिन छोटी आंत का क्या होगा ? इसमें शोधन/ सफाई कैसे होगी ? उन कृमियों का क्या होगा जो छोटी आंत में हैं ? बस्ति चिकित्सा का आखिर मुख्य कार्य क्या है ? दीर्घ शंका (शौच) के समय बड़ी मात्रा में ढेर सारा मल निकल जावे, क्या यह कार्य है ? अथवा जोर न लगाना पड़े यह कार्य है ? इनमें से कोई भी कार्य बस्ति चिकित्सा नहंी करती है । यह तो आंतों में केवल स्नेहन का कार्य करती है । मल को तेलों में चिकनाई होने के कारण बाहर निकालने में आसानी प्रदान करती है, साथ ही आंतों के घाव भरती है । आंतों से चिपके हुए मल को धीरे -धीरे गलाकर उसकी आंतों से पकड़ छूटने में मदद करती है । अत: बस्ति चिकित्सा पहले बड़ी आंत में आराम दिलाने वाली एवं उसे स्वस्थ, बलशाली बनाने का कार्य करती है । उन्हें (अलींर्ळींश) सक्रिय कर देती है । जब यह बड़ी आंत स्वस्थ होने लगती है , तब यह नियत समय पर (प्रात:काल के समय, स्वाभवत: वायु वृद्धि होने पर) मल को बाहर फेंकने का कार्य स्वत: करने लगती है । इसका परिणाम यह होता है कि छोटी आंत पर दबाव कम होने लगता है एवं इसकी सफाई स्वत: शुरू हो जाती है एवं इसका प्रभाव पूरे शरीर/मन पर स्पष्ट दिखलाई देता है । किसी भी ऑटो मोबाईल इंजन में आप इसे साइलेन्सर की सफाई भी कह सकते हैं, जिससे कि गाड़ी की आवाज स्पष्ट हो, अनावश्यक दबाव (बेक प्रेशर) की समस्या खत्म हो जाती है। यहाँ तक पहुंचने में नि:संदेह काफी समय लगता है । धैर्य और साहस ही स्वास्थ्य प्रािप्त् की राह में मित्र हैं । कहा भी गया है कि - वीर भोग्या वसुन्धरा , साहसी व्यक्ति ही निर्भय एवं निरोगी होता है । इस धरती पर सारे सुखों की प्रािप्त् निरोगी होने पर ही है । स्वास्थ्य पाना, किसी युद्ध से कम नहीं, युद्ध में विजयी वीर स्त्री/ पुरूष!/ प्राणीमात्र तभी आनंद ले सकते है वीर भोग्या वसुन्धरा केवल उन , विजयी / निरोगी लोगों के लिए ही कहा गया है । आयुर्वेद में हमेशा वात, पित्त और श्लेष्मा (कफ) के बारे में बात की जाती है और इस बस्ति चिकित्सा का सीधा लेना-देना इन तीनों से होता है, वह कैसे ? यह स्पष्ट होता है पित्तं पंगु:, कफं भंगु :,पंगवो मल घावत: ।वायुना यत्र नीयन्त्रे, तत्र गच्छन्ति मेघवत् ।। जिस प्रकार बादलों को वायु के झोंके अपनी मनचाही जगह ले जाते हैं और वर्षा करते हैं । उसी प्रकार शरीर में पित्त और कफ तो पंगु है । इधर - उधर गति करने में असमर्थ होते हैं , यह वायु ही हे जो इन्हें पूरे शरीर में पहुँचाती हे । इनके प्रभाव भी स्पष्ट रूप से महसूस कर लिए जाते हैं, जैसे शरीर में कहीं भी दर्द हो तो यह वात दोष (वायु दोष), जलन महसूस होती हो तो यह पित्त दोष, शरीर में भारीपन हो तो कफ दोष (श्लेष्मा दोष ) । बस्ति चिकित्सा नियमित ली जाने पर (वृहत सेंधवादि तेल की बस्ति रात्रि में सोने जाने से पूर्व मात्रा २० मिली युवा वर्ग के लिए बच्चें को ५ मिली. सामान्यत:) और नियमित रूप से उत्सर्जित मल का निरीक्षण किया जावे तो मल के रंग के आधार पर शरीर से निकलने वाले दोषों का पता स्पष्ट चलता है । मल का रंग यदि चमकीला काला / काला हो तो वायु दोष (वात रोग), पतला पीला मल हो तो पित्त दोष, झागदार अथवा हरापन लिए झागदार मल हो तो कफ दोष शरीर से बाहर आ रहा है यह निश्चित हो जाता है । मल का सफेद रंग का होना मल को कृमियों द्वारा खाया गया है यह प्रदर्शित करता है । आंव के समान चिकना पदार्थ (म्यूकस) निकलना, शरीर से कृमि मल का निकलना समझा जाता है । शरीर से काला मल इस चिकित्सा को शुरू करने के काफी बाद में निकलता है । बस्ति चिकित्सा में मैंने जिस वृहत् सेंधवादि तले का उल्लेख किया है , उसमें आधार एरंड का तेल है । इस तेल की खासियत है कि इसे जैसा शरीर में डालते हैं, यह वैसा ही बाहर आ जाता है । शरीर में यह कोई भी रासायनिक क्रिया नहीं करता है , स्नेहन अवश्य करता है । वृहत सेंधवादि तेल शास्त्रोक्त है एवं सेंधा नमक , गजपीपल, रास्ना, अजवायन, सोधबीन , काली मिर्च, मुलेठी, सफेद जीरा, पोहकर, मूल, विड़नमक, संचर नमक, सौंठ, कूठ, वच एवं पीपल का उपयोग एरंड तेल के साथ कर , तेल पाक विधि से सिद्ध कर इसे बनाया जाता है । अरंडी के तेल को दूध/ चाय / गर्म पानी से लेने का प्रचलन हमारे देश में वर्तमान में अभी भी है । यह मुख से लेने पर कुछ तो फायदा तो पहुँचता है लेकिन वृहत सेंधवादि तेल की बस्ति ली जावे तो समस्याएं, जड़ से खत्म होती जाती है । बस्ति चिकित्सा में हजारों प्रकार की बस्तियाँ शरीर के भीतर देने के लिए बतलायी गयी है एवं यह ज्ञान इतना व्यापक है / अपने आप में सम्पूर्ण है कि इसमें नवीन शोध का विचार, मूर्खता पूर्ण है । पंचकर्म चिकित्सा का ज्ञान आज भी भारत में मौजूद है एवं केवल यही ज्ञान भारत को स्वास्थ्य के क्षेत्र में विश्व गुरू का दर्जा दिलाता है । जो विष शरीर में टीकों/इंजेक्शनों/रासायनिक गोलियों द्वारा पूरे शरीर में व्याप्त् हो चुका है । उस विष को जो रक्त के द्वारा पूरे शरीर में भ्रमण कर रहा है, उस विष को पूरे शरीर में कहीं से भी खींचकर वापस मल, मूत्र एवं स्वेद के रूप में शरीर से बाहर निकालने का कार्य बस्ति करती है । अत: बस्ति के बगैर समस्त ज्ञात/अज्ञात रोगों को चुनौती देना संभव नहीं है । स्नेहन :- इसमें तेल या घी को रोगी को/स्वस्थ व्यक्ति को खिलाया/पिलाया/चटाया जाता है । भोजन में चिकनाई एवं उसके सुखोष्ण (जितना गर्म, मुँह को अच्छा लगे) होने की शर्त अच्छे शरीर के लिए आवश्यक है । यह चरक ने बताया है । यदि इसी चिकनाई का थोड़ी अधिक मात्रा में उपयोग, युक्तियुक्त तरीके से किया जाये, जिससे कि देह शुद्ध हो सके, उसका शोधन हो सके, यही स्नेहन है । मैंने छिलके वाली मूँग दाल को, मनमाफिक मात्रा में, देशी घी से बघारकर मनचाहा मसाला डालकर, काफी लम्बे समय तक उपयोग किया है । इसमें घी को बघारते समय उसे इतना गर्म करना ही है कि, उसमें से घुँआ उठने लगे, यह अनिवार्य है । इस प्रकार की दाल उबालते समय, यदि इसमें पंचकोल (चव्य, चित्रक, सौंठ, पिप्पली, पिप्पला मूल) चूर्ण ५ ग्राम एक स्वस्थ युवा व्यक्ति के अंदाज से एक पोटली सफेद कपड़े की, में डालकर धागे से बांध लेवे, उबाल लेवें तो यह दाल और अधिक सुपाच्य होती है । इस दाल को भरपूर मात्रा में स्वस्थ व्यक्ति यदि ७ दिन (बिना रोटी के) खावे तो भी शरीर में स्पष्ट परिवर्तन इस स्नेहन कर्म से दिखने लगते है । देशी घी २०/२५ ग्राम, मूँग की दाल ५ ग्राम लेकर पानी एवं सेंधा नमक (स्वादानुसार) का उपयोग कर मूग्द यूष भी बनाया जाता है । इसमें एक लीटर पानी में मूंग दाल ५ ग्राम डालकर उबालते हैं (पंचकोल की पोटली भी साथ में डाल सकते हंै, यदि चाहें तो) दाल के उबल जाने पर, छानकर दाल फेंक देते है तथा इस पानी को अब घी गर्म कर (धुँआ उठने तक) इसमें डाल देते है । इसे चतुर्थांश होने के बाद, छानकर अपने स्वाद के अनुसार सेंधा नमक मिलाकर सुखोष्ण मूग्द यूष के पीने से मुँह के छाले जो ऊपर हो या पेट के अंदर हों सब में आराम आता है । इस यूष के पीने से मल को आगे आंतों में खसकने में मदद मिलती है एवं इस प्रकार से उपयोग किया गया घी आंतों में खसकने के अंदर के घावों को भर देता है । जिस प्रकार दरवाजों के कब्जों में केवल २ बूँद तेल भी उनकी अनावश्यक आवाज बंद कर देता है एवं कब्जे ढीले नहीं होते है, उसी प्रकार स्नेहन कर्म शरीर को दीर्घायु बनाता है । बलवान बनाता है । अभी बाजार में फोर स्ट्रोक गाड़ियाँ आना शुरू हुई हैं (पिछले कुछ वर्षोंा से) जिनकी कि पेट्रोल खपत बहुत कम है एवं इन गाड़ियों में टंकी में पेट्रोल के साथ आईल नहीं मिलाया जाता है । इन दोनों बिन्दुआें पर विचार बहुत आवश्यक है । पेट्रोल की खपत कम होने का कारण है, टू स्ट्रोक का फोर स्ट्रोक हो जाना एवं पेट्रोल का पूरा-पूरा उपयोग कर लिया जाना । टू स्ट्रोक का मतलब है कि क्रेंक शाफ्ट के दो बार पूरा घूमने पर पहिये का एक बार पूरा घूमना एवं फोर स्ट्रोक का मतलब है क्रेंक शाफ्ट के चार बार पूरा घूमने पर पहिये का एक बार पूरा घूमना । फोर स्ट्रोक की तकनीक में अपेक्षाकृत कम गर्मीपैदा होती है । इसमें घूमने वाले हिस्सों की तरलता के लिए/उन्हें रगड़-घिसाव से बचाने के लिए अलग से लुब्रीकेशन आईल पहॅुंचाने की व्यवस्था की गई है । बिना लुब्रीकेन्ट आईल मिले पेट्रोल में जब ब्लास्टींग होती है तो जो अपशिष्ट गैसे बनती है, उसमें मौजूद पानी की वाष्प सायलेंसर से गुजरते हुए उसे सड़ा देती है । यह स्थिति उन वाहनों में (सायलेन्सरों की) देखने में नहीं है, जिनमें इंर्धन के साथ आईल मिला होता है । हमारे शरीर का सायलेन्सर, बड़ी आंत कमजोर नहीं बल्कि बलशाली हो, इसका ख्याल हमें रखना है । मानव शरीर के लिए शुद्धतम, स्नेहन गौ घृत है, पश्चात तिल्ली का तेल आदि है । तेलों में सर्वश्रेष्ठ, तिल्ली के तेल से बना महानारायण तेल मालिश के द्वारा शरीर में उपयोग में लाये जाने पर रक्त में सीधे ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ा देता है, जिससे कि ज्वर की स्थिति में भी आराम हो, सब प्रकार के दर्दोंा से राहत मिलती है । वात और पित्त दोष को तुरंत संभाल लेने वाली यह स्नेहन चिकित्सा यदि गर्म पानी (सुखोष्ण) के साथ ली जावे तो कफ दोष का भी ध्यान रखने में सक्षम है ।
विरेचन :- सामान्य बोलचाल की भाषा में इसे जुलाब कहा जाता है । बालकों एवं वृद्धों को सामान्यतया विरेचन नहीं दिया जाता है । कुछ विरेचन करने वाले/दस्त लाने वाले औषध तीव्र होते है एवं कुछ मृदु (कोमल/नरम प्रकृति के) जैसे कि जमाल गोटा, सनाय तीव्र विरेचन है एवं हरड़, मनुक्का, मृदु (कोमल) विरेचन है । पंचकर्म चिकित्सा के जानकार सामान्यतया कोमल विरेचन का ही उपयोग करते है । मुझे जो अनुभव है वह हरड़ के उपयोग का है । इसमें भी दोे प्रकार की हरड़ है, पहली बड़ी हरड़ एवं दूसरी छोटी हरड़ (बाल हरड़) शोधन चिकित्सा के इस विरेचन कर्म में शुरुआती समय में बाल हरड़ का उपयोग किया जाता है । यह मल के भेदन का कार्य करती है तथा आंतों में से बीचोबीच मल को तेजी से गुजारकर अपना कार्य करती है । कुछ समय बाद बड़ी हरड़ की शुरुआत ऋतु चक्र के अनुसार अनुपान भेद से की जाती है, जिससे कि आंतों की दीवालों की सफाई हो सके एवं वहाँ संरघ्न छिद्रों में जमा चिपका मल उखड़ सके । बड़ी हरड़ का उपयोग, पित्त प्रकृति वाले / गर्भस्थ महिला के लिये नहीं है । ऐसी स्थिति में, अनिवार्य होने पर इन्हें बाल हरड़ ३-४ नग, अरंड़ी के तेल में उबाल कर, चूर्ण कर, सेंधा नमक के साथ दी जा सकती है । इस प्रकार की हरड़ को गंधर्व हरीतकी कहते है, जिसमें कोई दोष नहीं होता । बाल हरड़ का बना बनाया योग वैश्वानर चूर्ण के नाम से मिलता है । भोजन के एक घंटे पश्चात् (आधा या एक चम्मच) गर्म (सुखोष्ण) जल से इसे लिया जाता है । इस चूर्ण के दो-चार महीने तक चालू रहने के बाद बड़ी हरड़ शुरू की जा सकती है । प्रत्येक चेतनायुक्त देह में व्याप्त् वैश्वानर अग्नि को यह वैश्वानर चूर्ण प्रदीप्त् करता है । शरीर की आंतों का वास्तविक रूप में गहरा शोधन बड़ी हरड़ के उपयोग के बाद प्रारंभ होता है, लेकिन सामान्यतया वर्तमान समाज की दैहिक स्थिति, इसकी इजाजत नहीं देती । अत: शोधन को अपनाने वाले वैश्वानर चूर्ण से ही शुरूआत करें तो आगे तकलीफें कम आयेगी/नहीं आयेगी, जैसा भी भाग्य में होगा लेकिन बेहतर होगा इस बात का विश्वास रखें । विरेचन जब भी लिया जाता है उस समय भोजन के हित भूक, मित भूक होने पर विचार आवश्यक है, एक रोगी के लिये, लेकिन स्वस्थ व्यक्ति पर/बालकों पर/वृद्धों पर बंधन न डालते हुए उन्हें उनके मन अनुरूप भोजन दिया जाना चाहिए । हित भूक का यहाँ मतलब है पौष्टिक ओर सुपाच्य भोजन एवं मित भूक का मतलब है आवश्यकता से कम । पंचकर्म चिकित्सा कुल मिलाकर इतनी ही समझ में आयी है, साथ ही यह भी कि यह चिकित्सा अनुभवी विद्वान के सान्निध्य/सम्पर्क में रहकर ही शुरू करना चाहिए एवं शुरूआत के कुछ दिनों में यह सावधानी विशेष आवश्यक है, बाद में स्वयं को ज्ञान होते जाने से वह स्वयं अपनी देेह के बारे में समझने लगता है एवं श्रद्धा/विश्वास के साथ स्वास्थ्य सुधारता ही जाता है । इस पंचकर्म चिकित्सा में विशेष सावधानी क्यों कही है । वह इसलिए कि दोष शरीर से जब भी निकलेंगे, कुछ उत्पात तो मचायेंगे ही उन उत्पातों से रक्षा के लिए शिवा गुटिका नाम से बना रसायन, जिसका कि आधार शिलाजीत (शोधन किया हुआ) है दिन में ६ बार (दो काबुली चने के बराबर गोली) प्रत्येक बार एक गिलास पानी के साथ लेवें तो संभावना यह रहती है कि कोई उत्पात उठेगा ही नहीं । यदि फिर भी कोई उत्पात उठता है जैसे कि कमजोरी, उस समय अनार के दाने का रस (कपड़े में दबाकर) बीज अलग कर, निकालकर सुखोष्ण गर्म स्थिति में स्वादिष्ट बनाकर (शक्कर, जीरा, सेंधा नमक के साथ) दिया जाता है । यदि यह कमजोरी शोधन से आयी हुई होगी तो अनार तुरन्त काम करेंगे, पुरानी होगी तो अनार तो अपनी जगह काम करेंगे फिर आपको यहाँ उसके लाभ तुरंत न दिखेंगे । अत: आपको इस समय परामर्श की आवश्यकता होगी । इस समय कुशल वैद्य आपकी स्थिति को समझ आपको इस स्थिति से आसानी से निकाल लेवेंगे । इसमें संदेह का कोई स्थान नहीं है क्योंकि वैद्यक समूह को आयुर्वेद का दिशा निर्देश गलत दिशा में जाने ही नहीं देता और आपने तो अभी तक शोधन कार्य ही किया है । किसी रोग की चिकित्सा तो की ही नहीं है । दूसरे शब्दों में आत्मा को प्राण मान लिया जावे एंव देह को वस्त्र तो इस प्रकार शोधन अपना कर आपने अपने वस्त्र पर जमा गंदगी/मैलापन ही हटाया है । यह साफ वस्त्र का मामला है एवं मालूम रहे किसी भी कपड़े पर रंग चढ़ाना हो तो उसे पहले साफ करना ही होता है । अन्यथा मैले वस्त्र पर ुकोई भी रंग ठीक से नहीं चढ़ता है । जो लोग केवल शोधन चिकित्सा में ठीक हो जाते है/होने लगते हैं, वे भाग्यशाली हैं । लेकिन शेष लोगों को छोड़ा नहीं जा सकता एवं किसी भी चिकित्सा की पूर्णता उसी में होती है । हमारे वर्तमान समय में क्या-क्या हमारी मदद के लिये उपलब्ध है, यह एक सर्वविदित तथ्य है । ऋषि मुनियों ने इस संबंध में सबसे पहले वृक्षों/वनस्पतियों को इस योग्य माना एवं उन्हें अपने मन अनुरूप धारण करने योग्य बनाया । उस समय के वैद्यजनों ेको निर्देश था कि वह वनस्पति/वृक्षों से तैयार औषधियों का मूल्य नहीं लेवें । औषधि के योग्य पत्तों को कुचलकर पानी के साथ उबालने से क्वाथ बनता है । यह क्वाथ रोगी की आवश्यकता के अनुसार चयनित कर शोधन (पंचकर्म) के साथ दिये जाने से उसे सीधी, सरल, नि:शुल्क चिकित्सा मिल जाती है । कई बार कहा जाता है आवश्यकता अविष्कार की जननी है । वहीं आचार्य रजनीश सिद्ध करते है कि विश्राम अविष्कार की जननी है । ऊपर जो क्वाथ बनाने की विधि है, ताजा पत्ते लाओ, कुचलो, उबालो (पास में खड़े रहो -पानी के चतुर्थांश होने तक), छानो, फिर थोड़ा ठंडाकर, सुखोष्ण स्थिति में पीयो । हफ्ता-१० दिन हो तो पी लें, कई बार तो वैद्य लोग महीनों तक मुँह खराब करवाते रहते हैं/फिर रोज-रोज की यह झंझट कैसी ? जिसमें नियम से घंटे-२ घंटे खराब होते हों, साथ ही बना हुआ क्वाथ भी २४ घंटे में खराब हो जाता है । अत: उक्त रीति से नित्य क्वाथ बनाने की झंझट से बचने के लिए मनुष्य ने क्वाथ के लम्बे समय तक टिकाऊ रहने एवं स्वादिष्ट बनाने के लिए प्रयास किये । यह सभी प्रयास, क्वाथों में, एल्कोहल ऊपर से मिलाकर अथवा उनमें एल्कोहल स्वयं तैयार होकर मिल सके, इन दो विधियों के द्वारा बनाये गये । जिन्हें कि प्रवाही क्वाथ का नाम दिया गया यह लम्बे समय तक खराब नहीं होते है, बल्कि पुराने और अधिक अच्छे माने जाते है । इन क्वाथों के अलावा वृक्षों/वनस्पतियों/पादपों/गुल्मों/लताआिूकॅ$ैंं/िर्ण्%ॅत्त्डींद्गैंं/र्त्त्ीध्त्त्ैंं/गु्ॅमैंं/्र्डीउ के उपयोग के द्वारा आसव, अरिष्ट (रिष्ट का अर्थ मृत्यु), अवलेह (जिसे चाटकर खाया जावे) च्यवनप्राश अवलेह, पाक, हिम कषाय, फाण्ट कषाय बनाया जाता है । इन सबके बनाने के तरीके विभिन्न होते है । इन सबके माध्यम से मानव देह की अभिष्ट इच्छाआें की पूर्ति हो जाती है । आयुर्वेद में धातुआें का उपयोग बहुत बाद में शुरू हुआ, उनमें भी पारा सबसे पहली धातु थी । पारे को भारतीय मनीषियों ने मानव देह के समान ही माना एवं कहना न होगा कि जिस तरह मानव देह की पंचकर्म चिकित्सा के द्वारा शुद्धि की जाती है, उसी तरह पारे की भी शोधन चिकितसा की गई । इसके तीखे गुणों को सौम्य एवं पाचक गुणों में बदलने हेतु इसके ८ शोधन संस्कार सम्पन्न किये गये । यथा-स्वेदन संस्कार, मर्दन संस्कार, मूर्च्छन संस्कार, उत्थापन संस्कार, पावन संस्कार, बोधन संस्कार, नियमन संस्कार और दीपन संस्कार । इन शोधन संस्कारों में खास बात यह है, यह भी पूरी तरह वृक्षों / वनस्पतियों के स्वरस (पत्तों का रस) पर ही आधारित हैं । प्रसिद्ध रसायनशास्त्री नागार्जुन ने धातुआें को उपयोग में लेने की पेशकश करते हुए कहा है स्वल्पमात्रं बहुगुण सम्पन्नं योग्य भेषजम् । धातुआें से युक्त औषधि कई गुणों से संम्पन्न होकर थोड़ी सी मात्रा में ही लेने से लाभ पहुँचाती है । आयुर्वेद का वैद्यक समूह के लिए दिया गया, स्पष्ट उद्घोष है मर्दनम् गुणवर्धनम् जितना रसायनों को घोटोगे, उनके अणु टूट-टूट कर औषधि के गुणों को बढ़ाते जावेंगे । पारे के अलावा गंधक, सोना, चाँदी, ताँबा, लोह, नाग, बंग, यशद अन्यान्य धातुआें से भी वेहद चमत्कारिक अनेक महा औषध तैयार किये गये । ये सभी महाऔषध हमारे लिए/हमारे पास आज भी जीवित है । कमजोरी या अन्य किसी भी उपद्रव को संभालने की शक्ति इनमें है । आवश्यकता केवल इस बात की है कि इनका उपयोग शोधन कर्म के साथ किया जावे । कमजोरी चिकित्सा विज्ञान में इंजीनियरिंग क्षेत्र का अत्यधिक योगदान है । शोधन कर्म के साथ में आवश्यक होने पर इसका उपयोग व्यावहारिक है । नाड़ी ज्ञान के अलावा वैद्यगण, आधुनिक चिकित्सा मशीनों का भी उपयोग अपने विवेकानुसार कर सकते है । इसमे संकोच निरर्थक है । पेथोलॉजी की सहायता की आवश्यकता शोधन कर्म कर रहे व्यक्ति को सामान्यत: नहीं होती है । रोगी व्यक्ति यदि स्वयं अपनी देह में हो रहे बदलावों पर निगरानी करना चाहे तो उसको निश्चित यहाँ से मदद मिलती है । शोधन कर्म करने की गति/तीव्रता वैद्य के नियंत्रण में होती है । कमजोरी/अन्यान्य लक्षण महसूस होने पर इसकी तीव्रता कम कर दी जाती है/रोक दी जाती है । पुन: शक्ति के संचय होने/ताकत के आने का इंतजार किया जाता है । इस हेतु आवश्यक औषधियाँभी दी जाती है । अधिकतर समय भोजन संबंधी परामर्श ही रोगी को आराम दिलाने में पर्याप्त् होता है । वर्तमान भारत में चौराहे -चौराहे पर ऐसे ऑटो मोबाईल के मैकेनिक मौजूद है या यूँ कहा जावे कि रथी/महारथी है जो किसी भी इंजन के स्वास्थ्य का ज्ञान केवल, सायलेन्सर से निकलने वाले धॅुंए को देखकर एवं उसके इंजन की आवाज को सुनकर लगा लेते हैं । धुँए रंग यदि- १) मुश्किल से दिखाई देने वाला धँुआ, भूरापन लिए = स्वस्थ्य इंर्जन, २) सफेद धुँआ = फ्यूल में पानी चले जाने से । शोधन कर्म में रोगी को अथवा स्वस्थ व्यक्ति को भोजन हमेशा चबा-चबा कर ही करना चाहिए । इससे अन्न का स्वाद, जिव्हा पर स्पष्ट महसूस होता है एवं इससे मन भी धीमे-धीमे शांत होने लगता है । यही वह स्थिति है, जिससे कि कलंक से भारी क्रोध भी शांत हो जाता है एवं आप उतना ही खाते है, जितने की आपको आवश्यकता है । स्थूलता से/मोटापे से, भय खाकर, भोजन जबरन कम करने की आवश्यकता नहीं है । इससे तो आप अपने अंदर की फ्यूल टंकी/आमाशय के आकार को जबरन छोटा करने का प्रयास करते हंै/पोषण कम कर देते है । जो लोग मन से अत्यधिक प्रफुल्लित रहते हैं, उन्हें स्थूलता से एकदम परेशानी की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । यहाँ एक बात मैं स्पष्ट रूप से कहता हँू कि देह/शरीर, हमेशा मन से चलता है/या यूँ कह सकते है, शरीर मन का पूरक हैं एवं मन, शरीर का पूरक । मन के शोधन के लिए गुरू ही राह दिखाते हैं। समय-समय पर यह राह दिखलाने वाले कई माहपुरूषों ने/संतों ने जन्म लिया है । मुझे तो ओशो के दिये हुए मोती जो आयुर्वेद के वात,पित्त,कफ के सिद्धांत पर ही नजर आते हैं, वे हैं स्वतंत्रता, सरलता, शून्यता । स्वतंत्रता का मूल भाव समझने वाला व्यक्ति ही सरल हृदय का हो सकता है एवं उसी व्यक्ति के शून्य के द्वार खुलते है- अध्यात्म की उस विराट दुनिया मेंजिसे मोक्ष कहते है। भारत भूमि संतों/महापुरूषों से सदैव सरल, जाग्रत भूमि है । इस भूमि की मिट्टी को हम भारतवासीयों को पकड़कर रखना है, सभ्याताआें की आँधियाँ, रिमोट कंट्रोल से हमला करती ही रही है । इस पावन भूमि पर निवास करने वाली/प्रकृति की पुजा करने वाली/हिन्दू प्रजाति ने कभी किसी का भय नहीं खाया है । उसे कीटाणुआें से इतना भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । आपके शोधन कर्म चालू करते ही आपका प्रतिरक्षातंत्र कार्य करने लगता है एवं इस पूरी चिकित्सा मंे सबसे पहले स्वयं को अपनी देह को ज्ञान होना प्रारंभ हो जाता है । इसलिए कहा गया है आयुर्वेद मोक्ष का द्वार है । मिट्टी को पकड़कर रखने वाले वृक्षों से मित्रता के संदर्भ में दृष्टि रखते हुए गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है कि - सरल बने, प्रभु सरल बने, मेरे देश की माटी, मेरे देश का जल, सरल बने, प्रभु सरल बने । मानव जाती अपनी सरलता को समझ ले तो निश्चित ही मिट्ठी को भी रासायनीक प्रदूषण से मुक्ति मिले एवं जल को भी ।मेरे वृक्ष मित्र तुम हो मेरी प्रेरणा, तुम हो मेरे गीत, तुम हो मेरी चेतना, तुम से सदियों पुरानी प्रीत । मुँह न मोड़ना तुुम, जब मैं तुम्हें भुल जाऊँ, प्रेम से मुझे जगाना तुम, जब भी मैं सो जाऊँ, सभ्याता के युग में, सभ्यताआें के युद्ध में, प्रेम का/ ज्ञानेश्वर का अस्तित्व टुकड़े-टुकड़े हो रहा है । अपनी छाया के आँचल में, टुकड़े सहेज लेना तुम, जब मैं तुम्हे भूल जाऊँ । भारत के अनन्य मनीषी/वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु ने प्रकृति के रहस्यों की गुत्थी सुलझाने के लिए के्रस्क्रोग्राफ उपकरण एवं अन्य कई यंत्रों का निर्माण किया, जिससे यह सिद्ध हुआ कि वृक्षों में भी चेतना होती है । वृक्षों में यह चेतना उसकी जड़ों से प्रारम्भ होकर तने के बाहरी भाग में सर्पिलाकार गति करते हुए उसकी सारी शाखाआें मे फैल जाती है । यह प्रवाह या स्पंदन, अत्यंत धीमे होता है । धातु के टुकड़े से वृक्ष को चोट पहुँचाने से यह स्पंदन प्रभावित होता है । तने को काट देने से यह स्पंदन, शुन्य हो जाता है । वृक्षों के तनों पर घात लगा देने से (तने को गोलाई में १-२ इंच चारो से काट देने से) वृक्ष कुछ समय पश्चात् सूखने लगता है । इस प्रकार का कृत्य वृक्ष की हत्या के समान है। वृक्ष की चेतना उसकी त्वचा से ही गुजरती है । यही कारण है कि इनकी छाल को वृक्ष का सार भाग भी कहते है । वृक्ष के पाँचों अंगो जड़, छाल, पत्र, फल एवं बीजों का औषधीय प्रयोग होता है । पाश्चात्य देशों ने भी यहाँ का ज्ञान विदेश ले जाकर धातु विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने की कोशिश की है । भारतीय मनीषियों ने वृक्षों और धातुआें के ज्ञान का समन्वय किया है । दोनों तरीके से भारत/पाश्चात्य देशीय पद्धति से धातुआें की भस्म तैयार होती है । भारतीय पद्धति से तैयार भस्म सेन्द्रीय होती है । वहीं पाश्चात्य तरीके उनसे, उनकी भस्म को निरन्द्रीय बना देते हैं । यही कारण है कि आयुर्वेदोक्त पद्धति से बनी भस्में, निर्दोष होती है । कोई भी भस्म यदि सही तरीके से शास्त्रोक्त बनी हुई नहीं है उससे शरीर पर नुकसान होता ही है । यह नुकसान यूँ तो कभी-कभी तुरंत दिख जाता है, कभी-कभी काफी अरसे के बाद किडनियों पर अपना प्रभाव छोड़ता है । पंच कर्म चिकित्सा के साथ शिवा गुटिका रसायन के उपयोग के लिए इसीलिए कहा जाता है । यह केवल भस्मों के दोषों को नहीं वरन् अब तक ली गई एलोपैथी की तमाम औषधियों के विष को मूत्र मार्ग से निकालने में सक्षम है । साथ ही यह औषधि रक्त में जमे थक्के आदि को भी दूर कर नस-नाड़ीयों को अपूर्व बल देती है । शिवागुटिका को एक गिलास जल से लेने के लिए इसीलिए कहा गया है । इसकी गंघ रूचिकर न होने के कारण आप इसे ले न पा रहे होंे तो किसी दूसरे सज्जन से इसे खाली केप्सूल मेंभरवाकर ले सकते हैं । एक और उपाय है, इसे कटोरी में घोलकर पीया भी जाता है । ऊपर से शेष जल पी लेवें । शिवागुटिका लेने से मूत्र त्याग, थोड़ासा बढ़ जाता है लेकिन १-२ दिनों में पुन: सामान्य होने लगता है । यदि सामान्य न होवे तो शिवगुटिका की मात्रा कम कर दी जाती है । शिवगुटिका वैसे भी लेने से लाभ करती ही है , लेकिन शोधन कर्म के साथ तो ले ही लेना चाहिए । धातुआें के खाने में, आवश्यक जानकारी/सावधानी आवश्यक है । स्वर्ण/सोना/कनक के बारे में भारतीय मानस को समझाया गया है । कनक१ कनक२ तैं सौ गुनी, मादकता अधिकाय । इंहि खाए बौरात नर, उँही पाए बौराए । यहाँ कनक१ का शाब्दिक अर्थ है धतुरा, जिसको कि खाने से उसकी मादकता कष्ट देती है । मनुष्य को पागल तक कर देती है । वहीं दूसरा कनक२ के बारे में अर्थात सोने के बारे में सावधान किया गया है कि इसे पाने मात्र से मनुष्य पागल होने लगते है । इसे हम धन का अभिमान भी कह सकते है, यह अभिमान भी सोने के पास में होने से ही होता है । जब सोने को केवल पास में रखने से अभिमान/अहंकार जाग्रत होता है तो इसे खाने से क्या होगा ? इस प्रश्न का उत्तर है, खाने वाले मन का निर्भय होता है । वह तुरन्त गहरे से गहरे अवसाद में देह के, डूबने पर भी, वापस स्वस्थ/दीर्घायु जीवन को प्राप्त् करता है । स्वर्ण से निर्मात किसी भी औषधि के उपयोग के समय वैद्यकीय सलाह/निर्देश आवश्यक है । कुछ विशेष स्थितियाँ हैं, जिनमें सोना नहीं खिलाया जा सकता जैसे पीलिया होने पर । यहाँ रोगी को सोना इसलिए नहीं खिला सकते है क्योंकि सोने के सेवन के साथ भोजन मेंघी आवश्यक होता है । यहाँ इस पीलिया की परिस्थिति में घी नहीं दिया जा सकता साथ ही बस्ति का उपयोग भी नहीं किया जा सकता है । यहाँ आवश्यक है कि इस रोगी को मंडूर भस्म (कम से कम २-३ माह तक)खिलाकर, उसे पंचकर्म की शोधन चिकित्सा की जा सके इस योग्य बनाया जा सके । यह भस्म शरीर में अति सौम्यता के साथ व्यवहार करते हुए शरीर में लाल रक्त कणों को बढ़ाती जाती है । इसके साथ ही आक के पत्तों की कोंपल (एक इंच लम्बे पत्ते, शाखा के सबसे ऊपरी हिस्से वाले अथवा उसके फूलों का उपयोग) का एक हफ्ते में तीन या दो बार प्रयोग उसे लाभ पहुँचाता है । आक के प्रयोग से नेत्र में थोड़ी लालिमा दिखाई देती है । इससे भयभीत नहीं होना है । सनद रहें, विष ही विष को काटता है, विषस्य विषमोषधम् आक क सेवन काल में अलग से शुद्ध दूध नहीं पीना चाहिए कम दूध वाली चालू चाय पी सकते है । इसके सेवन के साथ नित्य ५-७ नग बाल हरड़ (युवा वर्ग) का प्रयोग पीलिया की जटिल स्थितियों में से भी रोगी को निकाल लेता है । मंडूर भस्म को शहद में मिलाकर लेना चाहिए । शहद अनुपान, भस्मों के सेवन के लिए सर्वश्रेष्ठ है । अनुपान उसे कहते है, जिसके साथ कोई औषधि ली जाती है । शहद एक ऐसा अनुपान है, जिसका पाचन पेट मेें नहीं होेता है । यह मुख मेंे रखते ही जिव्हा के संरहन छिद्रों से देह में प्रविष्ट हो, वांछित फल दिखाना शुरू कर देता है। सन्यास रोग- कोमा में जा रहे अथवा जा चुके रोगी को भी शहद अनुपान के साथ दी गई उचित भस्म लाभ पहुँचाती है । शहद को त्रिदोषनाशक अनुपान माना गया है । स्वर्ण से निर्मित कोई भी भस्म (बाजार में सामान्यतया गोली की शक्ल में मिलती है) हो, सबसे पहले उसे घोटनी में लेकर घोटते हैं । उसके बाद उसे बताए अनुसार अनुपान में मिलाकर चाटा जाता है । स्वर्ण से निर्मित भस्मों की तीव्रता बहुत अधिक होती है (मात्रा बहुत कम होती है) उसकी सौम्यता बढ़ाने के लिए उसमें २-३ ग्राम शीतोपलादी चूर्ण मिलाया ही जाना चाहिए । शीतोपलादी चूर्ण को आप मल्टी विटामिन्स भी कह सकते है । यदि आपको शोधन चिकित्सा के साथ सोना खाने की आवश्यकता पड़ती है तो कोई भी रसायन आपको आधी मात्रा में लेने से ही पर्याप्त् प्रभावी होता है । यह आपके द्वारा किये हुए शोधन (पंचकर्म चिकित्सा) का सुखद परिणाम है । यदि किसी रोगी को लम्बे समय तक सोना खिलाने की अनिवार्यता महसूस होती है तो उस सोने की उष्णता/तीव्रता को केवल घी ही सम्हाल सकता है । घी के अलावा नीम वृक्ष पर चढ़ी हुई गिलोय बेल का क्वाथ इस समय पीने को मिल जावे तो सोने मे सुहागा वाली कहावत सिद्ध होती है । गिलोय बेल नमिलने पर बाजार में गिलोय सत्व हमेशा उपलब्ध रहता है । इसे आधा ग्राम/एक ग्राम के लगभग, स्वर्ण औषधि के साथ मिला देने से हमेशा लाभ ही होता है । गिलोय का दूसरा नाम अमृता है । आप इसे देशी झरीरलशींराश्रि कह सकते हैं जो बुखार उतारता है,लेकिन अपनी उष्णता देह में नहीं छोड़ता । गिलोय की ही दूसरे रूप में बनी (चूर्ण - जो कि गोली की शक्ल में उपलब्ध / वटी रूप में) संशमनीवटी भी बाजार में उपलब्ध है । इसका मुख्य कार्य वात, पित्त, कफ,किसी को भी हाथ लगाये बगैर मात्र बढ़े हुए दोषों को बाहर का रास्ता दिखाना । बहुत लम्बे समय से बने हुए, दिखने वाले / न दिखने वाले ज्वरों को उखाड़ फेंकती है । उसकी इस क्रिया को ही संशमन कहते हैं । यह गर्भवती महिलाआें के लिए भी उपयोगी है । इस संशमनी वटी के लिए जल उत्तम अनुपान है । स्वर्ण से निर्मित कई महा औषधियों में से एक है - वृहतवात् चिन्तामणी रस । यह अपने नाम के अनुरूप शरीर में बढ़ी हुई वात की चिन्ता स्वयं कर लेता है । वात को यहां वायु अथवा प्राण भी समझ सकते हैं । हृदयाघात, लकवा, माइग्रेन, श्वास अन्यान्य कई समस्याआें में उपयोगी होने के साथ, शोधन के दौरान आयी कमजोरी को तुरंत दूर कर देती है । इसी प्रकार मधुमेह रोगीयों के लिए स्वर्ण बसंत कुसुमाकर रस, आंतों के रोगी के लिए स्वर्ण बसंत मालती रस, फेंफड़ों एंव मस्तिष्क में पानी भर जाने पर रस सिन्दूर (पारे एवं गंधक का योग) यानि कि अलग- अलग समस्याआें के लिए पचासों किस्म के धातु रसायन उपलब्ध है जो सही तरीके से उपयोग में लाये जाने पर लाभ देते ही हैं । जो लोग पंचकर्म चिकित्सा के मर्म को न समझ केवल धातुआें की मदद से दुनिया को चमत्कार दिखाने की कोशिश करते हैं । वे भी सफल तभी होते हैं जब उन्हें शमन चिकित्सा का बहुत ही कुशलता से उपयोग करना आता है । यही कारण है कि वे कभी सफल होते प्रतीत होते हैं / कभी असफल । शोधन कर्म के साथ ही धातु रसायनों को (केवल आवश्यक होने पर ही उपयोग) उपयोग में लेकर इच्छित स्वास्थ्य लाभ सबसे तीव्र गति से प्राप्त् होता है । वर्तमान चिकित्सा सबसे अच्छी वही होती है जो रोगी को ठीक करने के बाद वापस न बुलावे । मधुमेह के रोगी को स्वर्ण बसंत कुसुमार निश्चित लाभ पहुंचाती है । आप अपनी जिंदगी का काफी समय इसके भरोसे काट सकते हैं । यह काफी हद तक, बहुत विपरीत स्थिति होने पर भी आपका साथ देगी, लेकिन याद रखें,शोधन का साथ आपने न लिया तो आपका मुँह कभी मीठा होने वाला नहंी है । शक्कर के लेवल पर आप नियंत्रण तो रख सकते हैं, लेकिन यह नियंत्रण क्यों करना पड़ रहा है ? इसका इलाज , इस पर विचार, इस शोधन चिकित्सा में शामिल है, क्योंकि यह स्त्रोतों की शुद्धि करती है । मधुमेह के इस विशिष्ट रोग में पैथॉलोजी महत्वपूर्ण सहायता करती है । आप अपने शुगर लेवल के आंकड़ों से वैद्यजी को सूचित करते रहें । शोधन जारी रखें । जैसा व़ैद्यजी निर्देष देवें । पंचकर्म चिकित्सा का मुख्य बिन्दु है यह एक रोग को नहंीं वरन रोगों के समूह से घिर चुकी देह में भी नव चेतना भरने का सामर्थ्य रखती है । सम्पूर्ण विश्व को स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान देने वाले आयुर्वेद की दृष्टि, प्रकृति प्रेमी समाज पर कितनी गहरी रही है, इसका पता उसे तब लगता है , जब उसका विवाह होता है । विवाह से जुड़े रीति- रिवाजों / कर्मकाण्ड, हर कृत्य देह का मानसिक / दैहिक शोधन हो सके , इस तरह से बनाये गये हैं । मनुष्य का जीवन तो पानी के बुलबुले के समान है । क्षणभंगुर है, इसी कारण से वर एवं कन्या, किसी अन्य जीवित को अपने विवाह का गवाह न बनाते हुए पवित्र अग्नि के सामने फेरे लेते हैं । अग्नि को साक्षी / गवाह मानते हैं । गृहस्थ जीवन में उपयोगी / अनिवार्य , प्रसव पूर्व चिकित्सा , महिलाआें के लिए आज भी उपलब्ध है । इसे नव मास चिकित्सा कहते हैं । इसमें प्रत्येक माह के लिए अलग- अलग क्वाथ है, जिन्हें कि सुबह नित्यकर्म से निवृत्त हो खाली पेट लेना होता है। इसके लेने का कारण है । ध्येय है कि सम्पूर्ण गर्भकाल ठीक से निकले गर्भ को पूर्ण पोषण मिले / प्रसव सामान्य होवे / प्रसव पश्चात् शरीर में उपद्रव न होने पावे/बालक बालिका को माता के दूध की कमी न होवे । गर्भवतजी महिला के लिए शोधन चिकित्सा में बहुत कुछ है ।वृहत सेंधवादि तेल की बस्ति २० मिली प्रत्येक मास में ( कम से कम ३-४ बार) लेते हुए नवे माह में २ -३ दिन छोड़कर प्रसव होने तक लगातार लेते रहने से प्रसव सामान्य होता है । प्रसव के तीन-चार दिन बाद से दशमूल क्वाथ दिये जाने पर गर्भाशय का शोधन होता जाता है । इसे ८-१० दिन तक ही देना होता है । सम्पूर्ण गर्भकाल में महिला का विशेष ध्यान रखना, उसके पूरे परिवार/ समाज/ राष्ट्र की जवाबदारी है । पूरे देश को नि:शुल्क उपलब्ध हो सकने वाली क्वाथ चिकित्सा के उपयोग से ही विविधतापूर्ण वन -संरक्षण (अलग-अलग जाति के वृक्ष/वनस्पति) संभव है । वर्तमान समय में कॉलोनियों में /बगीचों में, दिखावे के एक जैसे ढेरों वृक्षों का स्थान यदि उपयोगी वृक्ष ले लेवें एवं शासन/ जनता इस हेतु मिलकर कार्य करे तो ही यह संभव है। यदि यह चेतना इस समय न जागी तो आने वाली पीढ़ियों के लिए विरासत में हम छोड़ जावेंगें -महंगी एलॉपैथी अथवा महंगी वाली आयुर्वेद की शमन चिकित्सा (धातु रसायनों वाली) जिसकी पूर्ति के लिए उन्हें निश्चित ही भ्रष्टाचारी/चोरी/ शोषण का मार्ग अपनाना ही होगा। वर्तमान समय में हमनें ऐसी व्यवस्था बना रखी है कि जब वृक्ष लगाने का समय होता है , सावन के महीने में , उस समय हमारे परिवारों में छोटे बच्चें की कक्षाएँ लगती रहती है । इन नौनिहालों की भागीदारी यदि इस कार्य में न रही , तो ऐसी व्यवस्था पर पुनर्विचार ज्वलंत बिंदु है । बुजुर्गोंा के लिए / डशळििी उळींळूशिी के लिये शेष समय तकलीफदायी न हो, इस हेतु शासन कानून बनाकर समाज को देने की मंशा रखते आया है । क्या इस प्रकार वह अपने उद्देश्य मेंसफल है /भविष्य में होगा । यह सुख कैसा, शासन का शासन तो रे मानव मन का, गिरभार बना सा तिनका, चल रहा यह राग रंग, जलता है, जीवन पतंग - कवि जयशंकर प्रसाद जीवन को यदि बचपन, जवानी, वृद्धावस्था के रूप में आयुर्वेदिक दृष्टि से देखें तो बचपन में स्वभावत: श्लेष्मा (कफ) का वृद्धि दोष, जवानी में पित्त दोष एवं वृद्धावस्था में वायु दोष होता है । इसी प्रकार सुबह , दोपहर और सांध्य समय में क्रमश: वायु, पित्त एवं कफ प्रवृत्त होता हे । यहाँ प्रवृत्त से अभिप्राय दोष से नहीं अपितु वृद्धि से है । वायु जब सुबह के समय प्रवृत्त हो रही होती है और हम नींद से जागते हैं तो उठते ही मल त्यागने की भावना इसी कारण से प्रबल होती है । शोधन चिकित्सा प्रारंभ करने के बाद यदि उपद्रव होवे तो उनका पूर्व अनुमान लगाना मुश्किल काम नहंी है । यह उपद्रव वे ही होंगें जिनको पूर्व में आपने शमन पद्धति से दबाया था । शरीर के उपद्रव शोधन चिकित्सा में तब भी होते हैं, जब कृमि बाहर आने को उद्यत होते हैं (तैयार होते हैं )। गुदा द्वार पर , इस समय खुजली आदि तकलीफ होती है । सुखोष्ण पानी से भरे टब में , नारियल तेल की कुछ बूॅेंदें डालकर बैठ जाने से राहत मिल जाती है । मैंने यहाँ सर्दी से शुरूआत की थी उसी विषय पर पुन: लौटकर आते हैं । यह सर्दी यदि अत्यधिक एवं बार- बार एक लम्बे समय तक होने लगती है, उस समय मजबूरन समाज का अधिकांश हिस्सा अदरक/ अलींर्ळींश ५०० से आगे बढ़ते - बढ़ते मादक द्रव्यों की ओर जाने- अनजाने ही प्रोत्साहित हो जाता है । वह यह भूल जाता है कि प्रायोजनार्थ और निष्प्रायोजन के अर्थ क्या है । इन शब्दों का मर्म केवल वैद्यगण/आयुर्वेद के मर्मज्ञ ही जानते हैं । इस सर्दी के दोषों को ठीक से समझने / न समझने वाला प्रकृति के साथ जवान हो जाता है । युवावस्था, स्वयं ही सारे दोषों का पाचन कर डालती है । इन्ही स्वस्थ युवाआें के हाथ में स्वस्थ्य भारत का निर्माण हो सकता है । वर्तमान समय में भारत के युवावर्ग का एक बड़ा भाग मद्यपान, रासायनिक मादक पदार्थ (स्मेक, हेरोइन आदि) के चंगुल में बहुत तेजी से आ रहा है । इसे बाहर निकालने के शासन के सारे प्रयाण् ऐलोपैथिक दृष्टि से हो रहे हैं । वे कहते हैं कि आप मन पर नियंत्रण रखें, हम तुम्हारी मदद करेंगें । मन पर नियंत्रण यदि युवक रख पावे तो इस दलदल में फंसेगा ही क्यों ? यही कारण है कि नशा मुक्ति शिविरों की सफलता का प्रतिशत अधिक नहीं है । युवा वर्ग बड़ा साहसी होता है, निर्भयी होता है, वह जिज्ञासु भी होता है एवं कभी -कभी उकसाये जाने पर दु:साहसी भी हो जाता है । ऐसे समय में वह प्रायोजन/निष्प्रयोजन नहंी जानता । वह तो केवल भूल करना जानता है । मेरे विवेक से शोधन चिकित्सा इस युवा वर्ग के लिए वरदान साबित होगी । अत्यधिक घातक रसायनों के आदि हो चुके रोगी स्वयं के लिए एवं पूरे समाज के लिए अभिशाप है ,क्योंकि रोगी अवसाद में जा चुका है। इन रोगीयों को शोधन चिकित्सा मिल जवे तो ऐस युवा तुरंत अवसाद से बाहर आ जावे। अवसाद से बाहर आते ही देह स्फूर्तिवान हो जाती है । ऐसे समय इनके लिए च्यवनप्राश अवलेह दिया जाना आवश्यक है । इसके सेवनकाल में दूध निषिद्ध है (नहंी ले सकते हैं) इसे भी उन्हें, उनमें खुलकर भूख लने के बाद ही देना होता है । महानारायण तेल की मालिश भी इनके लिए उत्तम है । स्वस्थ स्त्री/ पुरूष / बालक / बालिका/ वृद्ध ने प्रात: नित्य कर्म से निवृत्त हो, खूब भूख लगने पर , कुछ तृिप्त् का एहसास होने तक इसे लेना चाहिए । (दूध निषिद्ध है) शोधन कर्म अपनाने जा रहे हृदय को, अतिसार (ज्यादा दस्त, पतले दस्त) की आशंका, अक्सर होती है । अतिसार अत्यधिक कब्ज होने पर ही होता है । अतिसार यदि बर्दाश्त, सहन करने के बाहर हो तो सबसे पहले शोधन कर्म को रोक देते हें । जिस तरह वृक्ष की छाल को सार कहते हैं, उसी प्रकार यह शरीर भी उस कब्ज से परेशान होकर अपना सार भाग, यानि जलीय अंश छोड़ने लगता है । ताकि जाम हो चुके मल को अंातों में गति करने में मदद मिले । ऐसे अतिसार में शोधन की गति रोककर, उसे सौंठ को पत्थर पर घीसकर (पानी में) उसमें मिश्री अथवा शक्कर मिलाकर दो- तीन घंटे में एक- दो बार दिया जाने पर ही लाभ कर जाती है, क्योंकि यह मल का बंधन करने में सक्षम है । एक-दो खुराक में यदि मरोड़/दस्तों की संख्या में कमी न आवे तो थोड़ा तेज प्रयोग है । एक कटोरी में गर्म पानी में १ चम्मच देशी घी डालकर पी जावें । अतिसार के रोगी के लिए ३ भाग मूँग (छिल्के वाली दाल) + एक भाग चावल + देशी घी को धुँआ उठने तक गर्म कर, मनचाहा मसाले का बघार से बनी , अच्छी पकी हुई खिचड़ी (खट्टा, मीठा स्वादानुसार) पथ्य है, बहुत अच्छी रहती है । अतिसार के कारण का निदान न कर आंतों की इस प्रक्रिया को तीव्र रसायनों से बना कोई भी निश्चेतक / एनेस्थेसिया तुरंत लाभ पहुंचाता है । यह बार का बार तुरंत आराम ही बार- बार होने वाली सर्दी /एलर्जी का जन्मदाता है । सर्वेषामेव रोगाणाम, निदानं कुपिता मला: समस्त प्रकार के रोगों के होने का कारण, क्रोधित हो चुका मल ही है एवं इसका निदान भी इसकी शांति में ही है । सर्दी अथवा अन्य रोग की बार-बार की गई शमन चिकित्सा से मल अंदर ही अंदर सूखने लगता है । इसके पश्चात् ही सूखी खाँसी चलने लगती है । खाँसी मुख्यत: वात/ वायु वृद्धि के कारण ही चलती है । ऐसे समय ५-१० ग्राम घी को धुँआ उठने तक गर्म कर उसमें आधा / एक कप दूध डालकर पी जावें । ३-४ घंटे में पुन: यह प्रक्रिया दोहरावें । खांसी कम हो जावेगी एवं खांसी के साथ कफ की खर-खर गले में महसूस होने लगेगी / राहत मिलेगी । इस कफ के बढ़ते ही आप तुरंत उसे पुन: सुखाने का प्रयाास न करें । शोधन चिकित्सा में विश्वास रखें एवं सुबह-शाम जितनी बार हो सके सुखोष्ण गर्म जल पीवें । शोधन जारी रखें । वैद्यजी से निर्देश लेते रहें । किसी न्यायालय का दृश्य है , सुनवाई जारी है , अपराधी से वकील पूछता है कि आप लिखना - पढ़ना जानते हैं ? जी हुजूर, लिखना तो जानता हूँ लेकिन पढ़ना नहंी जानता । अपराधी कहता है ।जज ठीक आप लिखकर बताईये । अपराधी कुछ आड़ी - टेड़ी रेखाएँ खींचकर कागत वापस देता है वकील महाशय कहते हैं - आप झूठ बोल रहे हैं, यह आपने क्या लिखा ?अपराधी पुन: कहता है - मैं झूठ नहंी बोलता , मैंने कहा ही है कि मैं लिखना जानता हूँ, पढ़ना नहीं जानता मेरी भी स्थिति उस अपराधी से भिन्न नहीं है ।मैंने भी मेरे वैद्यजी श्री आेंकारदेव त्रिपाठी (भिषगाचार्य) निवासी - जनकुपुरा, मंदसौर (म.प्र.) (०७४२२-२२२७७३) से जो कुछ समझ में आया, वह आढ़े - टेढ़े शब्दों में लिखा है । आप नि:संदेह कह सकते हैं कि इस लेख का शीर्षक गलत है जो बोले , वो ही सांकल खोल के स्थान पर होना चाहिए - जो बोले , वो ही जाए तेल लेने अन्यथा कबीरदासजी ने तो कहा ही है :- जिन खोजा तिन पाईयां, गहरे पानी पैठ । जो बौरा डूबना डरा, रहा किनारे बैठ ।।मुझे स्वयं को तैरना नहीं आता है एवं इस आयुर्वेद महासागर विषय की कोई डिग्री/ पढ़ाई नहीं है, लेकिन यह भी सत्य है - जीना झूठा, मरना सच्चा लेना झूठा, देना सच्चा । भगवान धनवंतरी के स्वास्थ्य संबंधी दिये गये ज्ञान से सम्पूर्ण सृष्टि लाभान्वित होगी।
इसी विश्वास के साथ
पंकज पंडित२७, देवरादेव नारायण नगर रतलाम (म.प्र.)मो. ९८२६७ ५५०९७

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